बस्तर जिले के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के कोटमसर गांव में स्थित बस्तबूंदीन देवी मंदिर मेले में पड़ोसी 30 गांवों के आदिवासी लोग एकत्रित होते हैं और अपने घर तथा गांव के देवताओं को लेकर आते हैं तथा कई अनुष्ठान करते हैं।
उन्होंने कहा कि यह सदियों पुरानी मान्यता है कि देवी एक नेत्र रोग विशेषज्ञ की तरह थीं जो वर्षों तक उनकी आंखों की रक्षा और देखभाल करती थीं, खासकर गर्मियों और बरसात के मौसम में जब नेत्रश्लेष्मलाशोथ संक्रामक हो जाता है।
एक ग्रामीण ने बताया, “देवी को प्रसन्न करने और अपनी आंखों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने वाले साधकों की सूची में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हम देवी को धूप का चश्मा चढ़ाते हैं। रंगीन चश्मा इस अवधारणा के साथ चढ़ाया जाता है कि जब आंखों से संबंधित कोई बीमारी होती है, तो डॉक्टर मरीजों को ऐसा चश्मा पहनने के लिए कहते हैं।”
हाल ही में कोटमसर में धार्मिक मेला आयोजित किया गया था, जिसमें पड़ोसी गांवों से सैकड़ों आदिवासी लोग एकत्रित हुए थे, जिन्होंने कहा कि यह सांस्कृतिक विश्वास प्रणाली का हिस्सा है कि उनके देवता भी मनुष्यों की तरह हैं।
स्थानीय संस्कृति से परिचित श्रीनाथ रथ ने बताया, “देवी एक इंसान हैं, इसलिए उन्हें भी यह बीमारी हो सकती है, इसलिए हम उन्हें आंखों की बीमारी और अन्य सभी स्वास्थ्य समस्याओं से बचने के लिए चश्मा चढ़ाते हैं और वे हमें आशीर्वाद देती हैं। हम यह भी मानते हैं कि उन्हें ऐसा प्रसाद चढ़ाने से वे तीन साल में एक बार हमारी इच्छाएं पूरी करने के लिए प्रसन्न होती हैं। यह परंपरा कई सालों से चली आ रही है।”
मंदिर के सेवायत पंडित मंगतूराम नाग ने बताया कि इंसानों की तरह देवी की आंखें भी साफ और स्वस्थ होनी चाहिए ताकि वह अपने भक्तों को साफ देख सकें। देवी को चश्मा चढ़ाने के पीछे अलग-अलग मान्यताएं हैं।
मेले की शुरुआत आदिवासी लोगों द्वारा अपने-अपने ब्लॉक (परगना) से आए स्थानीय देवताओं को ढोल-नगाड़ों और उत्सव के बीच देवी से परिचित कराने से होती है और ‘सिरहा, बैगा’ (पंडित) झूले पर बैठकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं।